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अत्यार सुधी विधिमुखथी अधिक संसारीने 'आगमवचन' नी श्रद्धानो निषेध कर्यो हवे ग्रंथकार निषेधमुखे स्पष्टतया आगमवचननी श्रद्धानो अभाव दर्शावे -
तस्माच्चरमे नियमादागमवचनमिह पुद्गलावर्ते ।
परिणमति तत्त्वतः
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खल्लुस चाधिकारी भवत्यस्याः ॥५-८॥
मूलार्थ - अतएव श्रागमवचननी श्रद्धा अहीं आत्माने चरम पुद्गलपरावर्त्तकालमा ज परिणामे छे, अने तेथी करीने परमार्थथी आ लोकोत्तरतन्त्रप्राप्तिनो अधिकारी चरम पुद्गलपरावर्त्तकालवर्त्ती आत्मा ज होय छे; अर्थात् अन्य श्रात्मा अधिकारी न थाय.
स्पष्टीकरण
उपर जे कही गया तेनो निष्कर्ष ए आव्यो के आगमवचनमां प्रीति चरम पुद्गलपरावर्त्त कालमां ज बने पण अन्य कालमां न होय, तथा ' लोकोत्तरतत्त्वप्राप्ति' नी योग्यताअधिकारीपणुं चरम पुद्गलपरावर्तकालवासी श्रात्मा सिवाय अन्यने न बने. भावार्थ ए के - श्रागमवचन पर श्रद्धा अने लोकोत्तरतत्त्वप्राप्ति अंत्य कालमां उपलब्ध थाय. आथी ज अधिक संसारीने या तत्त्वना अधिकारी न गण्या.
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