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अमृतरसास्वादः
को नाम विषे प्रवर्तेत ॥ ५-७॥ मूलार्थ-जे आत्माओए अविधिसेवाने बहुमानतया स्वीकारी छे तेश्रोने आगमन वचन सम्यक्तया परिणमतुं नथी, कारण के अमृतरसना स्वादनो जाणकार मृत्यु देनार विषतुं भक्षण करवा कदापि प्रवृत्ति करे खरो ? न ज करे. स्पष्टीकरण"
शास्त्रकार दृष्टांत साथे उपरनी वात अहीं खुल्ली करे छे. संध एक वार अमृत पीधुं होय अने तेनो रस बराबर अनु. एव्यो होय त्यारपछी आ अनुभवी विष मृत्युने आपनार छ, एवं भान थवाथी तेनुं भक्षण करतो नथी. एवं जिनवचन Dोने सम्यक्तया भासमान् थयुं होय तेस्रोने जिनवचनमा कदापि भ्रांतिज्ञान उत्पन्न यतुं नथी, अने अहीं उपरना अात्माओने भ्रांतिज्ञान थयुं होवाथी जिनवचन यथार्थरूपे परिणमतुं नथी. अाथी ज समजाय छे के आ आत्माओने जिनवचनरूपी अमृतरस-स्वादनुं ज्ञान नथी थयुं अने मृत्यु देनार विष-भक्षणमा ज लीन थाय छे. अहीं जिनवचन ते अमृतरस जाणवू अने भ्रान्तिज्ञान ते विषभक्षण जाणवू. उपाध्यायजी स्वटीकामां ज्ञानफळथी वंचित एवा अपरिणामी
आत्माने आ 'अविधिसेवा' नामे पापविकार होय छे एम जणावे छे. भावार्थ ए के-अधिक संसारी आत्मा ज ज्ञानफळवंचित अपरिणामी होय.