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(२६१) मुख्य फल नथी तेमज तेना पाटे ते धर्मो आदरवा ते ज विपरीत मान्यता जणावी छे. हवे भ्रान्तहृदयी आ धर्मोनुं मुख्य फल देवर्द्धि, राजद्धि, संपत्ति आदि ज माने छे अने तेनी प्राप्ति माटे तेमां प्रवर्ने छ पण मोक्षफलने मानतो नथी. प्राथी ज अहीं ग्रंथकर्ताए कह्यु के-आगममां आ धर्मर्नु फल स्पष्टपणे प्रगटतया कर्तुं छे, छतां तेने ते मानतो नथी-स्वीकारतो नथी अने आदरतो पण नथी. निदान ए के-श्रा ज कारणथी श्रा अविधिसेवाने पापिष्ठा कही, पण जेओने समकित प्रगट थयुं छे, आदि भाव-आरोग्यता प्राप्त थइ के अने चरम पुद्गलपरावर्त कालमां जेओ दाखल थया छे तेओना तीव्र पापविकारो सर्वथा शान्त थवाथी तेओने आगमवचनमा अरुचि, अश्रद्धा अथवा खोटी मान्यता कदापि उद्भवती नथी. अर्थात् भ्रान्तिरूपी मंडल विना था पापिष्ठा अविधिसेवा उदयमां आवे नहीं अने आ पात्माओने भ्रान्तिसमूहद् कारण ज पहेलाथी नष्ट थइ जाय छ, किन्तु भ्रान्ति-समूह उपरोक्त आत्माओ सिवाय अन्यने न ज होय.
'दानादि ' धर्मो अविधिभावे सेवे तेनुं ज स्वरूप फरी ग्रंथकार स्पष्ट करे छे. येषामेषा तेषामागम
वचनं न परिणतं सम्यक् ।