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________________ ( २३९ ) कारणो एवा छे के जे कारणो बाल, मध्यम ने प्राज्ञ ए त्रणे वर्गमां घटी शके, तेमज 'डमरुक मणि' न्याये प्रथम गुणस्वरूप का पछी दोषस्वरूप अने त्यारपछी फरी विशिष्ट गुणस्वरूप जणान्युं होवाथी या दोष त्रणे वर्गमां लागु थइ शके छे. आथी उपरोक्त क्रोधना कारणो अहीं केम न जणाव्या तेनो खुलासो थइ गयो. मध्यम जनोने क्रोध शाथी उपजे ते या प्रकारे जाणवुं - ' सत्येतरदोषश्रुतिभावादन्तर्बहिश्च यत्स्फुरणं ' सद्भूत दोषो सांभलवाथी अने आरोपित दोषो सांभळवाथी अंतरंगमां जे विकारो उद्भवे ने तेथी बाह्याकृतिमां विकारो तरी यावे. परमार्थ ए केकर्मदोषथी अगर अनादि अभ्यासबलथी अथवा अमुक संयोगोथी सुंदर प्रवृत्ति छोडी थोडं या वधारे जे कां सुंदर आचरण कर्य होय अथवा अन्यने नुकसान थाय तेवी क्रिया सेवी होय, जे परथी बालजीवो, प्राकृत लोको लोकसमूहमां अगर अमुक व्यक्ति समीपे ते ते दोषो जाहेर करे, निंदा करे, मानहीन करे या हेतुथी विवेकीओ पोताना दोषनो विचार ने प्राकृत जनस्वभाव न विचारता - श्वान पोताने मारनारने न करडता ढेफाळाने या पत्थरने करडवा दोडे तेम - प्राकृत बालजीवोनी सामे मध्यस्थभाव मूकी उग्रतानुं रूप हृदयमां धारण करे पछी अभूत् वर्तन, आवेशनी नजर, शरीरना प्रत्येक अवयवोमां तेजस्वीपणुं अंगीकार करे तेमज पोतानामां कोइ विरुद्ध दोष न होय, मिथ्या आचरण थयुं न होय तेमज
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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