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________________ ( २३८) दोष अथवा असदभूत दोषो परमुखथी श्रवण करी अंत:करणमां जे विकार उद्भवे अने पछी बाह्य आकृतिद्वारा ते विकारो प्रत्यक्ष देखाय तेमज आ विकारथी परमार्थ कार्यतत्त्वनो विचार बाजु पर रहे ते माटे श्राविकारने क्रोधकंतीनुं चिह्न कयुं छे. " स्पष्टीकरण " जे कारणोथी आत्मानी समधारण प्रकृति-मध्यस्थभावनो विकार थाय अने आत्मा स्वभावथी उलटो चाले के जे समये शरीरना प्रत्येक अवयवो आवेशमय जणाय ते विकारने शास्त्रकर्ता क्रोधविकार जणावे छे. या विकार उद्भववाना अनेक गौण-मुख्य कारणो गणाव्या छे. घणी व्यक्तिओ चीडियालु स्वभावना लीधे जे वखते कोइ पण चीडियापणानु कारण उभुं करे एटले चीडाइने आवेशमय सविकारी बने के, ज्यारे बीजारो पोतानी मानलोलुपी बुद्धिना लीधे मानप्राप्तिमां अंतराय आवतो देखे एटले सविकारी थाय छे. अन्य व्यक्तियो अणसमजना कारणोथी क्रोधी बने छे. केटलाको हास्यस्वभावथी, केटलाक कौतुकपणाने लीधे एम विचित्र कारणो आवेश उद्भववाना अनुभवाय छे. अहीं क्रोधकंडूतीना जे कारणो कहेशे ते मात्र कांइक समजु अने विवेकीजनने जे कारणोथी क्रोध प्रगटे ते ज जाणवा. अविवेकी तथा अकल विनाना लोकोने उपरोक्त कारणोथी क्रोध उद्भवे छे, तो पण अहीं जे कारणो दर्शावे छे तेमां ते कारणोनो अंतर्भाव थवाथी उपरोक्त कारणो अहीं दर्शाव्या नथी, अने ग्रंथदर्शित
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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