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( २४०) अन्यने नुकशान थाय तेवी क्रिया तेओए आचरी न होय छतां पण समजणनी खामीना कारणथी, ईर्ष्याबुद्धिथी, बालस्वभावने लीधे विवेकीओनी सुंदर क्रियाने पण असुंदर क्रिया मानी वधुमां खोटा दोषो आरोपी बालजीवो विवेकीओने निंदे, तेश्रो पर ईर्ष्या करे, हलका पाडवा माटे अनेक प्रपंचो करे. अतएव भर्तृहरिए वैराग्यशतकमां कडं के के-'गुणे खलभयं' सज्जनोने स्वगुणना अंगे नित्य खलजनोनो भय रहे छ, तेमज अन्यत्र पण कयुं छे-"न विना परवादेन, हृष्टो भवति दुर्जनः। काकः सर्वसरसान् , पीत्वा, विना मेध्यं न तृप्यति" ॥१॥ " दुर्जनो सज्जनोनी निंदा विना प्रसन्न थता नथी, कारण के कागडो सर्व रसर्नु आस्वादन कर्या पछी विष्टाभक्षण विना तृप्त थतो नथी." आ ज हेतुओथी विवेकीओ हृदयमां खीन्न थइ बाह्याकारोमां क्रोधनुं रूप धारण करे छे अने वस्तुतत्त्वनो विचार पण भूली जाय छे. क्रोधनो ए स्वभाव ज छे के पोताना उदयथी विवेकीोने पण भानभूल्या करे छे. परिणामे आ क्रोध वधतां सर्वथा विवेकीओ विवेकभ्रष्ट थवा साथे वस्तुतत्त्वना विचारथी विहीन थाय छे, यावत् यशोविजयजी महाराज आ उद्: भूत क्रोधना चिह्नोने आत्मानुं अत्यंत अहित करनार, दुर्गतिना कटुक फलने अर्पनार अने अकार्योने जन्म आपनार एवा क्रोधना दुष्टविकारो उपरोक्त कारणोथी शरीरना प्रत्येक भागमां मध्यमजनोने उपजे छ एम स्पष्ट जाहेर करे छे.