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________________ ( २३७) भावार्थ ए के-सत्संगति जगतना उंचामां उंचा सर्व लामो प्राप्त करावे छे. आवी सज्जनसंगतिना संसर्गमा रहेवाने चित्त प्रेराय नहीं, किन्तु जेना संगथी दुर्गुणो, पापमति, कुव्यसनो अने निकृष्ट परिणामो मळे तेवी संगति करवाने चित्त राजी थाय-या लक्षणोने शास्त्रकर्ता ' धर्मपथ्यनी अरुची' नामे त्रीजो पापविकार गणावे हे. आ पापविकारना बलथी आत्मा धर्मामृतनुं पान कदापि अनुभवी शकतो नथी अने तेथी आत्महित समजवाने हतभाग्य रहे छे. आ श्लोकमां उपर कह्या प्रमाणे धर्मश्रवणमा अनादरभाव, तत्त्वरसास्वादमां विमुखता, सज्जनोनी असंगति जे दर्शाव्या ते ' धर्मपथ्यनी अरुचि' विवेकीोने ओळखवा माटे आ त्रण लिंगो जणाव्या छे, कारण के आलिंगोने जाण्या पछी स्वात्मा अने परमात्माना भंगे 'धर्मपथ्यनी अरुचि' विवेकीओ बराबर विचारी शके, तेमज तेनो विचार कर्या पछी आत्माने हितमार्गथी भ्रष्ट थतो बचावी शके. हवे ' क्रोधकंडूति ' जाणवानो उपाय जणावे छे सत्येतरदोषश्रुति__ भावादन्तर्बहिश्च यत्स्फुरणम् । अविचार्य कार्यतत्त्वं तच्चिहूं क्रोधकंडूतेः ॥४-१३॥ मूलार्थ-सत्य अने असत्य दोषो एटले यथास्थित
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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