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________________ ( २३६ ) खडा थाय तेमज निवृत्ति नथी, धर्मश्रवण न करे न थाय, प्रमाद आडो यावे अथवा निद्रा विगेरे अनेक विघ्नो व्यवसाय बहु छे एम कही शृंगाररसनी, विक्रथानी, हास्यनी, विलासोनी ज्यां कथाओ थती होय त्यां उत्साहथी जाय, निद्रा के प्रमाद नडे नहीं, व्यवसायनो पण विचार यावे नहीं, वळी नाटको, सिनेमटोग्राफ आदि देखवा माटे पैसानो व्यय करी गाढ प्रेमथी गमन करे, ज्यारे धर्मश्रवण करवाने कोई प्रेरणा करे तो 'एमां शुं सांभळवानुं छे ? आपणे जाणीए छीए तेमां कांइ नवुं नथी' अथवा ' अत्यारे धर्मश्रवणनो समय नथी, अवस्था थया पछी घणुं सांभलीशुं ' इत्यादि कथन करी धर्मश्रवणमां अनादरभाव उपजवो ते; वळी रमणीरस मोजशोखमां लीनता राखवी अने तव भूतपदार्थोमां, आत्महितमां, निःश्रेयसमार्गमां जे प्यार उपजवो जोइए ते न उपजे किन्तु ते रसना आस्वादनभावमां परांगमुखप प्रगट ते धर्मपथ्यना अरुचिना प्रकारो छे. फरी जेनी संगति करवाथी आत्माना गुणो आविर्भूत थाय, अना दिनी कुटेवो मटी जाय, कमां जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्त्ति, सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ? ॥ १ ॥ " बुद्धिनी जडतानो नाश करे, वाचामां सत्यरसनुं सिंचन करे, मानयोग्य उन्नत दिशानुं दर्शन करावे, पापने दूर करे, चितनी प्रसन्नता करे अने चोतरफ कीर्त्तिनो धारो करे एवी सज्जनसंगति मनुष्योने शुं शुं लाभो नथी करती १ "
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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