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(२३५) उपाध्यायजीनो आशय नथी, किन्तु नामभेद जाणी वस्तुनो विचार नहीं करवो अने नामना मोहमां खेंचाइ जवु ए खोई छे, अहितकर्ता छे, सत्य वस्तुनी परीक्षाथी ठगावानुं छे ए ज बताववानो मनोरथ उपाध्यायजीनो छे. आ त्रणे प्रकारो 'दृष्टिमोह 'नुं स्वरूप जणावे छे अने ' दृष्टिमोह ' मिथ्यात्वभावजनक होवाथी ग्रंथकर्ताए तेने अधम-निकृष्ट दोष जणावी धर्मार्थी प्रात्माने सर्वथा त्याग करवा योग्य छे एम मानी श्रा प्रमाणे विस्तृत स्वरूप कह्यं.
ए रीते ' दृष्टिसंमोह' नुं स्वरूप जणाव्या पछी 'धर्मपध्यमां अरुचि ' ए त्रीजा दोषनुं स्वरूप जणावे छे.
धर्मश्रवणेऽवज्ञा __ तत्त्वरसास्वादविमुखता चैव । धार्मिकसत्त्वासक्तिश्च
धर्मपथ्येऽरुचर्लिंगम् ॥ ४-१२ ॥ मूलार्थ-धर्मव्याख्यानोनांश्रवणमां अनादर,परमार्थभूत पदार्थ संबंधी जे रस तेना स्वादमां विमुखपणुं, धर्मिष्टजनोनी संगति नहीं करवी ए सर्वे धर्मपथ्यना अरुचि चिह्नो छे. " स्पष्टीकरण" ___ धर्मपथ्यनी अरुचिना प्रकारो दर्शावे छे. धर्मशास्त्रो अने धर्मव्याख्यानो ज्यां वंचाता होय त्यां तेने सांभलवानी रुचि