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________________ (२३४) रण तथा नियम दर्शवनार अन्य शास्त्रो समीचीन नथी ए प्रकारे आग्रहविशिष्ट वस्तु स्वीकार करवाथी उपाध्यायजी कहे छ के ते दृष्टिमोह ज गणाय. निदान ए के-यद्यपि अन्य शास्त्रो समीचीन मान्या नथी तो पण जे अंशमां सर्वज्ञमतने अनुसरता होय अने नितान्त नामभेदथी ज अलग पडता होय ते अंशने असमीचीन अने असत्य स्थापवाथी विपरीत मान्यता ज गणी शकाय. अतएव ा दृष्टिने दृष्टिमोह जणाव्यो तेमज अन्य मतमां जे सर्वज्ञवचन- अनुसरण देखाय छे ते सर्वज्ञमतना वाक्योना आलंबन लीधा पछी ज संभवे; अन्यथा अंश मात्र मात्र पण सत्य वस्तुबोध अन्य मतमां क्याथी घटे ? कडं पण छे के उपदेशपदमा प्रस्तुतः ग्रंथकर्ताए "सव्वप्पवायमूलं दुवालसंगं जो जिणक्खायं । रयणागरतुल्लं खलु तो सव्वं सुन्दरं तम्मि" ॥ १॥ " द्वादशांगीमांथी अमुक अमुक वचनो स्वीकार्या पछी प्रत्येक मतो उपस्थित थया छे. आ हेतुथी आ द्वादशांगी रत्नाकर समान होवाथी सर्व मतोनुं मूल जिनकथित द्वादशांगी कही छे, एटले परमतना शास्त्रोमा जे जे सुंदर होय ते ते द्वादशांगी अंतर्गतर्नु जाणवू." टुंकाणमां एटलुंज समजवान के ज्यां नामभेद सिवाय वस्तुतः पदार्थभेद न होय, परमार्थतया एक ज होय, छतां नामभेदना लीधे आग्रहमां खेंची जइ पोतानुं ते सारं अने अन्यनुं सारं छतां खोटुं मानवू ते दृष्टिमोहर्नु लक्षण छे. अहीं एक अंश मात्र सत्य पदार्थ जणावनार अन्य मतने सुंदर मनावबानो
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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