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________________ ( २२८ ) तृष्णाना उदयथी समर्थ आत्मा पण सर्वदा विषयोमां अतृप्त ज रहे छे, एटले गमे तेवा सुंदर अप्राप्य अने अलौकिक भोग्य पदार्थो उपलब्ध थाय तो पण अन्य अन्य विषयो मेळवावाने अभिलाषा ज रहे छे. आ हेतुथी ज या तृष्णा त्याज्य गणी अने तृष्णाना उदयमां उपरोक्त ' धर्मतत्त्व ' पामवो दुर्लभ बताव्यो. दृष्टिसंमोहनामे बीजा पापविकारनुं स्वरूप प्रगट करे छे. गुणतस्तुल्ये तत्त्वे संज्ञाभेदागमान्यथादृष्टिः । भवति यतोऽसावधमो दोषः खलु दृष्टिसंमोहः ॥ ४- ११ ॥ मूलार्थ - जेनुं फल एक सरखं होय एवा वे ताविक पदार्थों छे, छतां बन्ने पदार्थोंने नामभेदथी अथवा पोतपोताना आगममां बतावेल प्रकारथी अन्यथापणे माने एवा प्रकारनो दोष जेना बलथी प्रगटे तेने निश्चयतया विद्वानो 'दृष्टिसंमोह' नामे बीजो पापविकार माने छे. " स्पष्टीकरण " प्रथम पापविकार ' विषयतृष्णा ' जणावी. हवे 'दृष्टिसंमोह' नामे पापविकार जगावे छे. अहीं ' विषयतृष्णा' ना स्वरूप पछी ' दृष्टिसंमोह ' नुं स्वरूप कथन कर्यु पण प्रथम
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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