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________________ ( २२९) दृष्टिसंमोह' नुं अने त्यारबाद विषयतृष्णानुं स्वरूप एवो अनुक्रम केम न जणाव्यो ? ए प्रश्न सहजतया पेदा थाय छे. उत्तरमां समजवान के-जे अहीं चार पापविकारो जणाव्या तेमां उत्पत्तिक्रमनी अपेक्षाए विचार करीए तो प्रथम क्रोधकडूति, बीजो धर्मपथ्यमां अरुचि, त्रीजो दृष्टिसंमोह अने चतुर्थ विषयतृष्णा ए प्रमाणे पापविकारो उपजे छे. क्रोधथी धर्ममां अरुचि, अरुचिथी दृष्टिनो मोह अने दृष्टिमोह थया पछी विषयेच्छा प्रगटे-आ क्रम छतां ग्रंथकर्ताए यथाप्राधान्य न्याये एटले सर्वथी प्रधान पदार्थोनो प्रथम न्यास करवो अने पछी प्रधान प्रधाननो अनुक्रमे न्यास करवो ए रीति स्वीकारी छे. मूलना 'दृष्टिसंमोह' नामे पदनी टीकामां-" दृष्टि: दर्शनं-आगमः जिनमतं तत्र संमोहः संमूढता अन्यथोक्तस्यान्यथा प्रतिपत्तिः दर्शनसंमोहः" " दर्शन एटले अागम-जिनमत तेमां मूढता अर्थात् आगममां कहेल वस्तुने अन्यथापणे स्वीकारवी तेनुं नाम दर्शनसंमोह जाणवू " ए प्रमाणे कर्तुं छे. आथी दृष्टि एटले मान्यतावस्तुप्रतिपत्ति तेमां मतिनी व्याकूलता ते ज दृष्टिमोहन खरुं स्वरूप समज. अहीं दृष्टिमोह वस्तुबोधमां मुंझवण करावी वस्तु-स्वीकारना रागमां खेंची जाय छे, अने दृष्टिराग अमुक व्यक्तिमां राग उपजावी व्यक्तिप्रेम तरफ खेंची जाय छे. पाथी जे प्रेम बन्या पछी अनेक अनर्थों तथा आत्मअहित वेठवा छतां आ रागने समजु मनुष्य पण छोडी शकतो नथी.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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