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________________ ( २२० ) तरीके योग्य ने सुसंबद्ध कलो. भावार्य ए के उपर कहेल्ल चारित्रवंतानी क्रियाओ प्रशंसापात्र बनवाथी सदाचारी शुद्धवर्तन होवाथी लोकोने हानि न थाय तेवी प्रवृत्ति आदरवाथी हास्य अने निंदा न बने तेतुं आचरण करवाथी पोते 'जनप्रिय ' बनवा साथै परने अनुकरणीय चारित्रद्वारा स्त्रपर उभयने धर्मसिद्धिकारक बने थे. अतएव य लक्षणथी धर्म पामेल धर्मी आत्मामां ' धर्मतत्त्व ' नी प्राप्ति थइ छे के नहीं एवं अनुमान सुंदर रीते करी शकाय छे. उपर का प्रमाणे ' धर्मतत्त्व ' ना पांच लक्षणो पांच श्लोकी ग्रंथकर्ता विस्तारथी बताव्या, जे परथी तेनुं स्वरूप समजाव्या पछी विवेकी कोइ पण आत्मा धर्मीओनी परीक्षा करवा जरूर समर्थ था एमां संदेह नथी, तथापि विशिष्ट परीक्षा माटे फरी ग्रंथकर्ता तेना धर्मी आत्मामां विशिष्ट दोषो जेवा के विषयतृष्णा विगेरेनो जरुर अभाव होय ते समजाववा माटे दृष्टांतपूर्वक आदि दोषोनुं विस्तृत स्वरूप दर्शावे छे आरोग्ये सति यद्वद् व्याधिविकारा भवन्ति नो पुंसाम् । तद्वद्धर्मारोग्ये पापविकारा अपि ज्ञेयाः ॥ ४-८ ॥ मूलार्थ - आरोग्यता - रोगनो अभाव थया पछी जेम मनुष्यने कांइ पण व्याधि संबंधी विकारो उद्भवता नथी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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