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(२१९) सर्वथा कर्मोनी निर्जरा करावी पछी ज प्रात्माथी अलग थाय. मा प्रमाणे पुण्यानुबंधी पुण्यपदनी व्याख्या कही छे, एटले धर्म अने सदाचारनी प्रशंसा करवाथी प्रशंसा करनार उत्तरोत्तर पुण्यकार्योनी परंपरा ज हस्तगत करे छे. आज हेतुथी सूरिजीए शुद्ध एवा ' जनप्रियत्व' नामक पांचमा गुणने धर्मसिद्धिना फल प्रापनार तरीके वर्णव्यो. पुण्यानुबंधीपुण्य माटे ज हरिभद्रसूरीश्वरजी वदे छे के-"शुभानुषन्ध्यतः पुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः । यत्प्रभावादपातिन्यो, जायते सर्वसंपदः” ॥१॥ सुंदर महेलमा रहेनार अधिक सुंदर महेलमां निवासार्थे जाय तेम ज पुण्यना प्रभावथी मनुष्यो उत्तरोत्तर अधिक समृद्धिोने पामे छे. अतएव गुणानुबंधी एवं पुण्य भविक श्रात्माओए सर्वथा उपार्जन करवू उचित छे, कारण के एज पुण्यना प्रभावथी नाश नहीं पामनारी एवी सर्व संपत्तियो प्राप्त थाय छे." पुण्यानुबंधीपुण्यना कारणो ग्रंथकर्ताए अष्टकमां आ प्रमाणे कह्या छे-" दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद्गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः" ॥१॥ एकेंद्रियथी पंचेंद्रिय पर्यंत जीवोपर दया, वैराग्य, विधिपूर्वक गुरुजनोनी पूजा, विशुद्ध एटले पवित्र सदाचारो-आ कारणोथी पुण्यानुबंधीपुण्य बंधाय छे."
ए रीते परंपराए धर्मसिद्धि अने तेना फलो आपवाथी 'जनप्रियत्व' नामे पांचमो गुण 'धर्मतत्त्व' ना लक्षण