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________________ ( २१८ ) सार्थक बने छे. यशोभद्रसूरिजीए आदि पदनी व्याख्याने ट्रंकावी नांखी ले तेनुं कारण एटलुंज के विस्तारमां न उतरखुं. "" • फरी मूलना " बीजाधानादि ए पदनी टीकामां आदिपदथी अंकुर, पत्र, पुष्प ने फल ए चार पदार्थो सूचित करे छे. अंकुरादिनुं स्वरूप ललितविस्तरामां आ प्रमाणे छे - " वपनं धर्मबीजस्य, सत्प्रशंसादितद्गतम् । तश्चिंताद्यंकुरादि, स्यात्फलसिद्धिस्तु निर्वृतिः ॥१॥ चिंतासच्छ्रुत्यनुष्ठान- देवमानुषसंपदः । क्रमेणांकुरसत्कांड-नालपुष्पसमा मताः " ॥ २ ॥ " सत्पुरुषोनी प्रशंसा ते बीज, धर्मनुं चितवन- विचार करतो ते अंकुर विगेरे अने सिद्धिनी प्राप्ति ते फल " अथवा " धर्मनुं चितवन ए अंकुरा समान, धर्मनुं श्रवण करवुं ए कांडा समान, धर्मनुं आचरण ए नाल समान तथा परंपराए ते धर्मसाधनथी देव, मनुष्यनी सिद्धि पामवी ए पुष्पतुल्य मानेल छे. " मोक्ष ते फलतुल्य जाणवुं. अहीं बीज वे प्रकारनुं होय छे. जेने रोपवाथी फलादि प्राप्त थाय ते अने जेने रोप्या पछी निष्फल जाय ते, तेम ' धर्मप्रशंसा धर्मप्रशंसा' नामक बीजम पण अद्भुत शक्ति होवाथी उत्तरोत्तर फल विगेरे प्राप्त थाय छे, कारण केआ ' धर्मप्रशंसा ' ने शास्त्रकर्त्ता पुण्यानुबंधी पुण्यनुं कारण कहे छे. "पुण्यमनुबधूनातीत्येवं शीलमिति पुण्यानुबंधि तच्च तत्पुण्यं च पुण्यानुबंधिपुण्यं ॥ " जे पुण्य कर्या पछी अनुक्रमे पुण्यकर्मोंनो प्रवाह चाल्या करे, यावत् जे पुण्य
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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