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(२१७.) पण विपरीत आचरण करे तो तेमो अनंत दुःखना भागी बनवा साथे असंख्य लोकोने अनंत दुःखना भागी बनावे छे, माटे उपदेशक गुर्वादिकोए तेवु वर्तन करवू के जे स्वपरने हितावह होय. निदान ए के-उपरोक्त जनप्रियपणानी प्राप्ति अर्थे शुद्ध निर्विकारी वर्तन अने धार्मिक निर्मल क्रियानो करवी, तथा अन्य सामान्य जनो सदाचारी धर्मीलोकोना वर्तननी प्रशंसा करी पोताना आत्माने अनुक्रमे धर्मी बनावे छे एवं समजी गुर्वादिको पोतानी महत्तानी जोखमदारी बराबर ख्यालमां लइ पोताना चारित्रने उच्चचर बनावे, कदापि दोष लागवा दे नहीं, एटले धर्मप्रशंसा धर्मीजनो अने इतरजननी हृदयभूमिमां धर्मबीजनी उच्च शुद्ध वावणी करे छे. एम वावणी थया पछी जेम बीज उत्तम भूमिमां पड्या पछी अनुकूल वायु अने जलष्टिना संयोगद्वाराए पत्र, पुष्प तथा फलादिने उपजावे छे तेम अहीं धर्मप्रशंसा नामक बीज पण परिणामे स्वपरने मोक्षरूप फल प्रापनारुं थाय छे. अत्रे मूलमां कहेल "धर्मप्रशंसादेः" ए पदनी टीकामां उपाध्यायजी आदि पदथी धर्म करवानी इच्छा, इच्छानो अनुबंध, धर्मना उपायो शोधवा, धर्ममां प्रवृत्ति करवी. गुरुसंयोग मेळववो अने छेवटे सम्यक्त्वनी प्राप्ति एटली वस्तुओ सूचवे छे. आटला पदार्थो आदि पदथी लेतां धर्मप्रशंसाने बीजनी उपमा सुष्ठुतया लागु थाय छे. अन्यथा तेने बीजपणे घटाववामां कल्पनानो आश्रय लेवो पडे छे, तेमज मूलकर्ताए प्रापेल आदि पद पण