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________________ ( २०४) अने प्रतिष्ठित साधुसमुदायमां पण घर करी गयो छे, परंतु वस्तुतः ए 'दाक्षिण्यता' नामक गुण नथी किंतु 'दाक्षिण्यता'ना ब्हाना नीचे मानलोलुपीपणुं, पूजावानी लालसाओ अने विना गुणे गुणीपणामां खपवानी प्रपंची तृष्णाओने पोषवानो एक मार्ग छे. खरं दाक्षिण्यपणुं सूरिजीए जे कडं तेज कहेवाय अर्थात् जेओ अन्यना कार्योनी हानि कर्या वगर पोताना प्रत्येक कार्योने साधे अने अन्यना कार्योनी वखते पोताना लाभोने पण मकी दइ ते कार्यो पेला पार पहों. चाडवाने अहर्निश कटिबद्ध रहे. अहीं केटलीकवार केटलाको अन्यना कार्यों साधी आपे छे तेना माटे अपूर्व पोताना भोगो पण आपे छे, परंतु अमुक समये जनसमूहमां ते ते कार्योने प्रकाशमां लावी कही बतावे के के ' अमुक वखते अमुक कार्य में कयु हतुं' इत्यादि अथवा ते ते कार्यो करी पापी जींदगी सुधी सामानी जींदगीने पोताना गुलाम तरीके करवानो प्रयत्न करे छे. केटलाको श्रा गुणना कार्य नीचे दबाइ जइ अति दुःखने अनुभवे छे. अतएव प्रज्ञासिन्धु आचार्य-'गांभीर्यधैर्यसचिवो' ए पदथी विशिष्टता जणावे छे के दाक्षिण्यताप्रिय उपकारबुद्धिए अन्यना गमे तेवा कार्यों करी आपे अने गमे तेवा सामाना गुप्तभेदो जाणे तथापि कालांतरे पोताना पर महान् विपत्तिनो समय आवे त्यारे पण ते ते करेला उपकारो के कार्योनी गंध सरखी अन्यना कर्ण पर न लावे. एटले के आंतरनो भेद
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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