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________________ (२०३) के जेथी स्वनिमित्ते ते ते आत्मानोने नकामो क्लेश अथवा अधर्म न थाय, अथवा जे कार्यों अगर क्रियाओ करवाथी अन्यना कार्योनी हानि थाय तेवा कायों बंध करवा. अहीं टीकाकार आ गुणनी विशिष्ट व्याख्या अापतां बहु उंडाणमां उतर्या छे. प्रथम कह्या प्रमाणे वर्तन राखनारो होय, अने विशेषतया ज्यारे अन्यजनोना कार्यों पोतानी दृष्टिए देखवामां आवे त्यारे त्यारे ते लोको पोतानी सहायता याचे अथवा न याचे तो पण पोतानी शक्तिने लोप्या वगर मनसा, वाचा अने काया ए त्रणे योगथी ते कार्यों संपूर्णतया विना नुकशाने साधी आपवामां उत्साहित दिल धारवू, आनुं नाम ताविक ' दाक्षिण्यता' कही छे. 'दाक्षिण्यता' नो केटलीकवार लोको एवो अर्थ करे के के-कोइने पण खोटुं न लगाडवू, कोइना दिलोने न दुःखववा. आथी सर्वने राजी राखवा, जूठ, प्रपंच अने खोटी खुशामतो करवी, आनुं नाम — दाक्षिण्यता' मानी तेवू वर्तन पोते राखे छ भने अन्यने राखवा तेवो उपदेश पण आपे छे. यदि बीजाओ आ उपरनी मान्यता न कबूले अने न सेवे तो तेने हलको गणवो, उतारी पाडवो, पोताना टोळाथी ते व्हार छे, दुर्गुणी अने आचारहीन छे, व्यवहारने समजती नथी इत्यादि प्रकारे निंदे छे. प्राथी वस्तुतः खरी 'दाक्षिण्यता' नुं स्वरूप मरी जवाथी अने आ गुणने अन्यथापणे लोको सपजी जइ तेवा टोळामां सामेल बने छे. वर्तमानमां ा मान्यतानो आशय मोटा जनसमूहमा
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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