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( २००) गुरुदीनादिष्वौचित्य
वृत्ति कार्येतदत्यन्तम् ॥ ४-३॥ मूलार्थ-'औदार्य' ए गुण कृपणभावना त्यागथीतुच्छ स्वभाव छोडवाथी हृदयनी जे विशालता प्रगटे तेनुं नाम छे, तथा गुर्वादिको अने अनाधारवंत लोको पर औचित्यताउत्तम सद्भाव राखवो तेम ज विशिष्ट कार्योमा अति उदारता करवी ए पण उदारता ज कही छे. "स्पष्टीकरण"
प्रथम कहेल 'धर्मसिद्धि' ना पांच लक्षणनो अर्थ क्रमशः एकेक श्लोकथी विस्तारथी दर्शावे छे. प्रथम 'औदार्य' नामे ए लक्षणनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे. 'धर्मश्चित्तप्रभवों चित्तनी विशुद्धि ए ज धर्म. 'आ धर्म चित्तथी प्रगटे छे' एम कही अाव्या एटले चित्तनी विशुद्धि विना बाह्य क्रियामात्रथी धर्म पामवो अशक्य छे, अने ज्यांसुधी तुच्छ स्वभाव-अधम वृत्तिओ होय त्यां सुधी चित्तविशुद्धि दुर्लभ कही छे. आ हेतुथी धर्मार्थीए प्रथम तुच्छ स्वभाव त्याग करवो आवश्यकीय छे. अतएव अहीं ग्रंथकारे 'औदार्य कार्पण्यत्यागात् ' धर्मनिष्पत्तिनुं पहेलं लक्षण-चिन्ह 'औदार्य' बताव्यु. अहीं औदार्य-उदारता एटले कृपणभावनोकंजुसाइनो त्याग. भावार्थ ए के-पैसानी उदारता करवी तेनुं ज नाम शास्त्रकार उदारता नथी बतावता, किन्तु तुच्छ