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________________ ( १९६ ) मोहनीय कर्मना उदयथी देशथी अथवा सर्वथी व्रतो स्वीकारी न शकवाथी आरंभ, समारंभ, परिग्रहादि पापोने सेवे छे, तो पण ते सर्व पापो अकर्तव्यबुद्धिए अशक्यपणाथी ज करतो होवाथी तेने पापकार्योमां आसक्ति-तीव्रता-गाढ प्रेम न राखवाथी तेने विशिष्ट निकाचित पापबंध थतो नथी; कारण केपापना तीव्र अगर मंद बंधनो मुख्य आधार अध्यवसाय पर ज होय छे. एटले आसक्तिपूर्वक करनारो तीव्र बंध करे अने आसक्ति-भावविना करनारो मंद बंध करे छे. कडुं छे के" सम्मट्ठिी जीवो जइ वि हु पावं समायरे किंचि । अप्पो सि होइ बंधो जेण न निद्धंधसं कुणह" ॥१॥ हेतु ए के-सम्यक्त्वधारीनी प्रवृति 'तप्तलोहपदन्यास '' तपेला लोढापर जेम पग स्थापन कराय ए न्यायथी पापकार्योमां सभयपणे ज होय छे. या कारणथी ते आत्मा पापने बहुमानथी मानतो नथी, जेथी छेवटे धर्मना योगथी धर्ममा अति उत्साह धारण करी तुरतज धर्मनी संपूर्ण सिद्धि पामे छे, अर्थात् समकिती जीव पापनो अल्पबंध करे छे ने धर्मना यथार्थ फलो पामे छे. एटले तीव्र बंधन थवाथी संसारभ्रमण तेने दीर्घ कालपर्यंत करवू पडतुं नथी. अहीं 'समकिति जीव पाप करे छे ?' ए प्रश्ननु समाधान करीने ग्रंथकर्ताए धर्मसिद्धि पामवानी योग्यता केम पमाय ए विषयतुं विस्तृत कथन कर्या पछी 'धर्मसिद्धि' नामे आ अधिकारनी संपूर्णता जणावी. -ECake
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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