SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४) धर्मेच्छुलिंगषोडशकम् । गत प्रकरणमा “ अस्य स्वलक्षणमिदं धर्मस्य० " ए श्लोकोथी धर्मनुं लक्षण, धर्मनुं स्वरूप अने तेना पांच आशयो तथा तेनुं स्वरूप, तेम ज धर्मसिद्धिना अधिकारी विगेरे जणाव्या. हवे ए रीते सिद्ध थयेल धर्म धर्मीयां छे के नहीं ते लिंग- चेष्टा, क्रिया, लक्षणो विना भोळखी शकाय नहीं, तेम ज ' धर्मसिद्धि' कार्यद्वाराए ज जाणी शकाय के अतएव ' धर्मसिद्धि ' नामे अधिकार का पछी ते ज धर्मतत्त्वना विस्तारथी लिंग- चेष्टाओ, हेतुश्रो दर्शाववा माटे श्रीमान हरिभद्रसूरिजी चतुर्थ षोडशकनामा प्रकरण कहे छेः सिद्धस्य चास्य सम्यगूलिंगान्येतानि धर्मतत्त्वस्य । विहितानि तत्त्वविद्भिः सुखावबोधाय भव्यानाम् ॥ ४–१ ॥ मूलार्थ -- का प्रमाणे सिद्ध थयेल धर्मतस्वने जाणवा माटे योग्य पुरुषो सुखथी समजी शके ते हेतुथी या धर्मतत्वना
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy