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________________ ( १९४ ) अपूर्व लाभने पाने छे, जेथी अहीं आत्मा हिंसा-अहिंसा, सत्य-असत्य, त्याज्य, आदेय, ज्ञेय, भोज्य- अभोज्य, ग्राशअग्राह्य, देव- कुदेव, गुरु-अगुरु, धर्म-अधर्म, तत्व- श्रुतब्व, पापकारणो- पुण्यकारणो विगेरे सर्वे पदार्थोंने यथार्थतया निरीक्षे छे, भने पछी विवेकने आदरी अपूर्व आनंदने अनुभवे छे एटलुंज नहीं किन्तु क्रोधादिनो उपशम, संसार पर अप्रेम, विषयोथी कंटाळो, दीन-हीन-दुःखी पर दयालु, तत्त्वमांज प्रेम अने तत्त्व पर श्रद्धा प्राप्त करी, संसारना कारणोनी अरुचि लावी एकान्त निःश्रेयसभावना कारणो प्रति आत्मा आत्माने प्रेरे छे. एटले या प्रकारे अपूर्व करण अध्यवसायना बलथी सम्यक्त्वरूपी अमृतनुं पान कर्या पछी, अथवा सम्यक्त्वनुं बराबर स्वरूप जाण्या पछी दीर्घ कालथी सेवेल विपरीत मान्यता, ज्ञान, ज्ञानी, धर्म, देव आदिनी निन्दा, नाश, आशातनारूप पापोने बहुमानभावथी कदापि ते आत्मा मानतो नथी. अमृतरसते सम्यक्त्व अने पाप ते मिथ्या रुचि अथवा प्रवचन - संघ प्रथम गणधर, द्वादशांगी विगेरे, तेनी निंदा, उपघात, आशातना विगेरे. पूर्वना श्लोकमां या विषय समजवा माटे ग्रंथकार प्रथम दृष्टांत कही गया एटले आ दार्शन्तिकनुं स्वरूप अहीं जणायुं. पूर्वे दीर्घकालिक जेम कुभोजनने अमृ तनो स्वाद जागनार इच्छतो नथी तेम ग्रहीं कुभोजन समान दीर्घकालिक अभ्यस्त मिथ्यात्वादि पापोने अमृतभोजन तुल्य
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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