SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १९३) देवादि तुष्ट थाय अने अमृतभोजननो स्वाद, तेना गुणो, तेनुं स्वरूप अने तेनी दुर्लभता तेने बतावे, एटले तुरत ज आ पेलो मनुष्य लांबा कालर्नु पोतानुं तुच्छ भोजन छोडी दइ तेज उत्तमदुर्लभ देवभोज्य अमृत भोजननी इच्छा करे छे, पण दीर्घ कालना कुभोजननी चाहना करतो नथी. तथाप्रकारेएवं त्वपूर्वकरणात् सम्यक्त्वामृतरसज्ञ इह जीवः । चिरकालसेवितमपि न जातु बहुमन्यते पापम् ॥ ३-१५ ।। मूलार्थ-एवी रीते अपूर्वकरण नामे उत्तम अध्यवसायथी सम्यक्त्वरूपी अमृतरसनो ज्ञाता आत्मा अहीं दीर्घ कालथी अनुभवेला एवा पण पापोने कदापि काले बहुमाननी दृष्टिथी मानतो नथी-इच्छा करतो नथी. " स्पष्टीकरण" यथाप्रवृत्तिकरणना बलथी आत्मा शुद्ध परिणतिमय बनी ग्रंथिभेदनी भूमिका पर आवीने उभो रहे छे, एटले विशुद्धतर परिणामना बलथी ग्रंथिभेदनी क्रिया करे छे. त्यारपछी अनादिथी अप्राप्त अने अतएव अपूर्व-नवीन एवा अपूर्वकरण नामे अध्यवसायविशेषथी शुद्ध तत्त्वमार्गनी रुचिरूप सम्यक्त्वना
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy