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________________ ( १९२) अनेकधा आत्माए सेव्युं, तो पापस्वभावभूत आत्मा पापनो स्याग करी 'पांच भावनी 'ज अभिलाषा करे अने पापने बहुमान भावथी न माने ए केम बने ? अर्थात् पूर्व कालयी जेनी साथे गाढ संबंध-तन्मयता के एवा पापभावने मूकी शुभ आशयोनी प्राप्ति आत्माने क्याथी थाय ? परमार्थ ए के न ज थाय, ए शंकाना निरसन माटे आचार्य हरिभद्रसूरिजी कहे छे अमृतरसास्वादज्ञः कुभक्तरसलालितोऽपि बहुकालम् । त्यक्त्वा तत्क्षणमेनं वाञ्छत्युच्चैरमृतमेव ॥३-१४॥ मूलार्थ:--अमृतना भोजननो स्वाद जाणनार लांबा कालथी तुच्छ भोजनना रसथी पुष्ट थयेल होय तो पण अमृत जे वखते मले ते ज क्षणे तुच्छ भोजनने त्यजी दइ केवल अमृतना भोजननी ज इच्छा राखे छे. स्पष्टीकरण___स्पष्टिकरण--जेम कोइ मनुष्य दरिद्र कुटुंबमां जन्म पाम्यो तेने जन्मथी ज तुच्छ मक्काइ, जुवार आदिना भोजन मले, तेनाथी ज ते मोटो थयो होय; परंतु अन्य स्वादिष्ट उत्तम भोजन देख्या पण न होय तो पछी तेणे देवतामोनुं भोज्य अमृतभोजन तो क्याथी देख्यु होय ? आ मनुष्य पर कोइ
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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