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( १९१) धर्मतत्त्व छ ? एना उत्तरमां ग्रंथकर्ता 'एतदिह धर्मतत्त्वं' ए पदथी पूर्वे कहेल पांच प्राशयो-भावो ए ज सत्य रीते धर्मनुं तत्त्व छ अर्थात् भाव वगर अन्य कांइ पण धर्मतत्त्व नथी; भाव विनानो धर्म उपरनी टापटीप ज कहेवाय. 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' मनना विचारो-विकल्पनो रोध करवो ते ज 'योग' कह्यो छे. या योगनी प्राप्ति शुभ अनुष्ठाननो व्यापार करवाथी ज बने, एटले मनने शुभध्यान, अभ्यास, इश्वरगुणस्मरण आदिमां जोडवाथी अन्य विकल्पो बंध थाय छे अने परिणामे निर्विकल्प दशामय मन बने छे. नहीं उपरना आशय-भावने पामवाथी चित्तनी शुद्धि ने छेवटे संपूर्ण कर्मक्षय थवाथी " मोक्षेण योजनात्योगः " 'मोक्षनी साथे जे संबंध करावी प्रापे ते ज वास्तविक योग कहेवाय ' ए प्रमाणेनो योग-शब्दार्थ आ भावोने लागु पडवाथी आ पांच भावोने ज शास्त्रकार 'परमयोग 'पणे संबोधे छे; तथा आ भावमां ज विशिष्ट कर्मचयरूप मुक्ति प्रापवानी शक्ति-प्रीतिविशेष रस होवाथी भाव ए ज. विमुक्तिरसः' जाणवो. परमार्थ ए के-भाव ए ज धर्मतत्त्व, परमयोग अने विमुक्तिरस छे. आ हेतुथी प्रथम तत्त्वज्ञोए उपरना आशयो प्राप्त करवा ए ज फलितार्थ अने धर्मतत्त्वनो मथितार्थ छे. ____ उपर 'पांच प्राशयद्वारा मननी तीव्रशुद्धि थाय' एम कडं अने प्रथम 'शुद्धि पापना क्षयथी थाय 'ए प्रमाणे कहेवायु. हवे पाप तो अतीत-अनादि कालमां वारंवार