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________________ (१८६) कही छे, प्रा बने क्रियानुं स्वरूप पांच आशयनुं स्वरूप ध्यानमा उतरवाथी सहजतया समजाय ते, छे, अतएव श्रीमान् हरिभद्रसूरिजीए 'एते सर्वेऽपि ए पदथी पूर्वे कहेल प्रणिधान, प्रवृत्ति, विघ्नजय, सिद्धि, विनियोग, ए पांचे परमार्थथी प्राशय-अभिप्रायना भेदो-प्रकारो जाणवा एम कर्दा. मूलमां आपेल 'तत्त्वतो' ए वाक्यनो भाव आछे के-जो के प्रणिधान आदि सर्व केटलेक अंशे क्रिया-प्रवृत्तिरूप ज छे तो पण अंतःकरणनो भाव क्रिया विना अोळखी न शकाय एटले क्रियानुं कारण अंतःकरणनो भाव ज होवाथी ए सर्वे 'तत्त्वतो''परमार्थथी' प्राशयभेदो जाणवा. अहीं श्राशय अने भावमां शुं तफावत छे ? एना उत्तरमा मूलकर्ता ज 'भावोऽयम् ' ए वाक्यथी स्पष्टपणे या आशयभेदो भाव ज छे एम कहे छे. या उपर बतावेल भावो-श्राशयो विना जे काइ कायाद्वारा शुभक्रियानो व्यापार कराय तेनुं ज नाम द्रव्यक्रिया समजवी अर्थात् तेवी क्रियाथी आत्मकल्याणरूपी फल मलतुं नथी माटे अने 'अप्पहाणे दव्व सद्दो' ए वचनथी द्रव्य शब्द अप्रधान अर्थनो वाचक होवाथी भाव विनानी द्रव्यक्रिया तुच्छ जाणवी अर्थात् जे क्रियामां कर्ताने क्रियानुं ज्ञान अने ' भावे उपयोगः' या वाक्यथी ते ज क्रियानुं पवित्र ध्यान-उपयोग ते क्रिया स्वफल-मोतसाधक होवाथी तेने आचार्योए प्रधान भावक्रिया अने एथी विपरीत क्रियाने भाव-उपयोगना अभाववाली होवाथी अप्रधान द्रव्यक्रिया कही छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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