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________________ (१८८) स्वसमान बनाक्वा जरुर धर्मस्थाननो विनियोग करवो जेथी धर्मस्थानोना संस्कारो जन्मांतर माटे बन्या रहे. धर्मसिद्धि थया पछी जरूर ' विनियोग' नामे प्राशय प्रगटे अने त्यारे ज पंचांगपूर्ण धर्म प्राप्त थयो कहेवाय. प्राप्तधर्मनुं मुख्य फल स्व समान परने करवो ए ज छे अने ' विनियोग'नु लक्षण पण ते ज कयुं छे. आ 'विनियोग' श्राशय आव्या पछी धर्मी आत्मा माटे काइ पण बाकी रहेतुं नथी. अहीं 'विनियोग'स्वरूप देखाडवाथी धर्मना पांच प्राशयोनुं स्वरूप संपूर्ण थयु. आ पांचे प्राशयो क्रियाद्वारा ज जणाय छे, माटे आशयनी ज महत्ता बताववा ग्रंथकर्ता जणावे छे आशयभेदा ऐते सर्वेऽपि हि तत्त्वतोऽवगन्तव्याः । भावोऽयमनेन विना चेष्टा द्रव्यक्रिया तुच्छा ॥३-१२ ॥ मूलार्थ—पहेला कह्या ते सर्वे परमार्थथी निश्चयतया प्राशय-अंतकरणना विचारभेदो-प्रकारो जाणवा. आने ज शास्त्रकारो 'भाव' कहे छे, आना विना केवल मन-वचनकायानी चेष्टा-व्यापार असार द्रव्यक्रिया जाणवी. स्पष्टीकरण---- द्रव्य अने भाव एम बे प्रकारे क्रिया शास्त्रोमां
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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