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(१८७) प्रथम पदार्थनी सिद्धि-उत्पत्ति अने पछी ज तेनो व्यापार कराय, अतएव सिद्धिनुं उत्तरकार्य-फलकार्य · विनियोग' व्यापार-स्थापन नामे पांचमो आशय सिद्धिना फलरूपे कह्यो. एटले अहिंसा, सत्यवाक्, ब्रह्मचर्य, दान, पूजा विगेरेनी पूर्ण कुशलता पाव्या पछी ज अन्य आत्माने ते ते कार्योमा जोडवा प्रयत्न करवो. भावार्थ ए के-स्वात्मामां प्रत्येक धर्मस्थानो प्राप्त थया पहेला, योग्यता आव्या पहेला, बराबर परिणम्या पूर्वे, विधि ज्ञान अने स्वरूप समज्या विना अन्यने उपदेशवा प्रयत्न करवो ते विना रसवतीए भोजननो आग्रह करवा बरोवर कहेवाय. एवं अपूर्ण धर्मस्थान अवस्थामां अन्यने उपदेश करवाथी स्व अने पर बन्नेने हानिकारक थाय छे. प्रा विनियोग नामे अाशय अाव्या पछी अहिंसा आदि धर्मस्थानो कदापि निष्फल बनतां नथी एटले अहिंसादि धर्मस्थानमुख्य फल निर्जरा करवा साथे आत्मा नितान्त धर्ममय बने छे, तेमज अन्यने उपदेशवाथीं ते ते धर्मो अविच्छेदरूपे कायम बन्या रहे-नाश न पामे. भावार्थ ए के-विनियोगकर्ता जो कदाचित् धर्मभावथी खसी पण जाय तथापि कनककलशभंग ए न्याये फरी धर्म संस्कारोनी जागृति थवाथी जन्मांतरनी परंपराए ते धर्मो कायम स्थिर रहे छे अने परिणामे उच्च धर्मस्थाननी सरहद भूमि पर प्रात्माने दोरी जइ यावत् मोक्षरूप उत्कृष्ट स्थान प्राप्त करावे छे अतएव प्रथम धर्मनी बराबर प्राप्ति करवी अने त्यारबाद स्वपरना उपकार माटे अन्यने