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________________ ( १५६) 9 मूलार्थ - सिद्धिनुं उत्तरकार्य प्रथात् फल विनियोग एटले जे धर्मस्थानोनी सिद्धि यया पछी अन्य जनोने ते धर्मस्थानो योग्यतया पाडवा. या विनियोग नामक लक्षण पाम्या पछी ' अहिंसा, दान आदि धर्मों कदापि निष्फल थता नथी, किन्तु परंपराए अहिंसा आदि धर्मस्थानो सुंदरताने पामी उत्कृष्ट रूपने धारण करे छे. भावार्थ निश्चयतया मोक्षने अर्पे छे. स्पष्टीकरण उपायो बताव्या. नामक पूर्वना श्लोकमां 'सिद्धि 'ना सिद्धि 'ना अहि सिद्धि कर्या पछी 'विनियोग धर्मनुं पांचमुं लक्षण आचार्य दर्शावे छे. प्रथम तो आत्माने अमुक अमुक धर्मोनी योग्यतावाळो संपूर्णतया बनावो. तेम थया पछी अन्यने पोताना समान करवा प्राप्तधर्मो अन्यमा विनियोग स्थापन करी धर्मस्थानोनी अविच्छिन्नता करवी, जेथी स्वात्मा जन्मातरमां सुगमतया ते ज घर्मो पामी अखंड कल्याणनो अनुभवी बने. एज भाव यहीं आचार्य स्पष्ट समजावे छे. करनार वज्ररुषभनाराच श्रदि, वैराग्यभावना - अनित्य आदि द्वादश भावना, या सर्व विचारो तथा भावनाश्रो आत्मानी शुद्धि अर्थे कही छे. संक्षेपमां आ सर्व विचारो जिनेश्वरोप कर्मनिर्जरा ने कल्याण अर्थे जणाव्या छे माटे उपर कह्या प्रमाणे अर्थी अने धर्मी मनुष्ये तेनो वारंवार अभ्यास करवो जेथी महाव्रतोनी अचलता अने दर्शन - ज्ञान - चारित्रनी नितान्त पुष्टि थाय.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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