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अतएव श्रहीं फलनी इच्छा रहित एवी प्रवृत्ति नणावी. परमार्थ ए के-कोइ पण धर्मसाधनमां फलनी इच्छा कर्या विना अने मन तथा कायानी उत्सुकताने छोडीने प्रवृत्ति करवी, तो मते प्रवृत्ति नामे पवित्र एवो धर्म संबंधी बीजो शुभ प्राशय कहेवाय; अन्यथा ते धर्म नहीं किन्तु एक जातनी धमाल ज कहेवाय. अत्रे या सर्व प्रवृत्ति क्रियारूप छतां तेमां प्राशयनी मुख्यता होवाथी अहीं तेने प्राशय कह्यो छे.
"प्रवृत्ति नामक आशयपूर्वक क्रियामा प्रवर्तनारने विघ्नो कदाचित् प्रावे खरा, अतः प्रवृत्तिरूप प्राशय साथे संबंध राखनार 'विघ्नजय' नामे त्रीजा प्राशयतुं स्वरूप ग्रंथकर्ता दर्शावे छे." विघ्नजयस्त्रिविधः
खलु विज्ञेयो हीनमध्यमोत्कृष्टः॥ मार्ग इह कंटक
ज्वरमोहजयसमः प्रवृत्तिफलः ॥३-९॥ मूलार्थः-प्रवृत्तिरूप आशयना फलने अर्पनार एवो, मार्गमां कंटक, ज्वर तथा मोहजयनी माफक जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एम त्रण प्रकारनो निश्चयथी विघ्नजय अत्रे जाणवो. "विघ्नोनुं बल"
स्पष्टीकरण-पापक्रियामां प्रवर्तनारने कदाचित् विघ्नो न