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________________ (१६८) प्रावी प्रवृत्ति अत्र अपेक्षित नथी; कारण के प्रावी क्रिया तो संमूर्छम जेवी अंध अने मृढ क्रिया न कही छे. अतएव उपाध्यायजी स्वकृत टीकामां विशेष खुलासो करे छे-'उपाय: प्रेक्षोत्प्रेक्षादिः' अत्र उपाय ते प्रेक्षा-सामान्यथी धर्मप्रतिज्ञा माटे विचारो करवा, आलोचन करवू, दृष्टिद्वारा जीवोनी तपास करवी. उत्प्रेक्षा-विशेषपणे विचारो करवा, रजोहरण आदि साधनोवडे पडिलेहणा करवी. - फरी-' अधिकृतयत्नातिशयात् ' अंगीकृत धर्ममर्यादानुं पालन करवा माटे प्रयत्न-उद्यम एटलो होय के जेमां लेशमात्र प्रमादने अवकाश न मले अर्थात् प्रमादने दूर करी विशिष्ट रीते प्रतिज्ञा-पालन माटे उद्यम करवो. जेमके-अमुक प्रकारनी धर्म संबंधी प्रतिज्ञा लीधा पछी पार्नु पालन करवामां बिल्कुल प्रमाद न करवो, किन्तु दिवसे दिवसे उद्यम अधिक ज जेमां कराय. आथी ज 'औत्सुक्यविवर्जिता चैव' जे प्रवृत्ति-क्रियामां शीघ्रता-मननी उतावळ न होय अथवा इच्छानो वेग न होय तेवी, एवं बीजा अर्थमां ा क्रिया कर्या पछी अनवसरे या क्रियाना फलनी इच्छा करवी तेणे करीने जे वर्जित होय. भावी प्रवृत्ति ते अत्र 'प्रणिधान' नामे प्राशयना फलरूप सत्य प्रवृत्ति जाणवी. अनवसरे फलनी इच्छा करवी ते पण एक आर्तध्यान कहुं छे-'विपरीतं मनोज्ञानाम् ' 'इष्ट पदार्थोनी इच्छा ते आर्तध्यान' 'निदानं च' विषयसुख माटे जे प्रार्थना ते पण आध्यान,
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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