SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१५८ ) 'अन्तरकरण' एटले अंतर्मुहूर्त यावत् मिथ्यात्वकर्मने सर्वथा दवावी राखवा ते. मा अन्तरकरणना पहेलाना टाइममां मिध्यात्वनो उदय होवाथी भात्मा मिथ्यात्वी जाणवो अने अन्तरकरणना प्रथम समयथी ज मिथ्यात्वनो उदय न होवाची पा समये प्रात्मा 'उपशम' नामे कषाय भने मिथ्यात्वकर्मना उदयाभावरूप समकितने पामे छे, एटले आत्मा साची मान्यता-वीतराग धर्मनो बराबर आदर करे छे. "बे-पक्षो" आ स्थानमां बे मतो छ-एक तो भागमपक्ष अने बीजो कर्ममंथनो पक्ष. कर्मग्रंथकार जणावे छे के-यदि अनादि मिथ्यात्वी प्रात्मा समकित नवेसरथी पामतो होय तो ते अन्तरकरणे करी दबावेला कर्मोनो शुद्ध, अर्धशुद्ध, अशुद्ध एवा त्रण पुंज करी उपशम समकित पाम्या विना ज 'क्षायोपशमिक' समकित पामे छे, शिवाय अन्य जीव एटले जे पहेला समकित पाम्यो इतो अमे पछी पडी गयो छे ते जीव समकित पामतो होय तो पुंजत्रयनी रचना कर्या विना ज प्रयम तो उपशम सकित पामे छे; माटे ा जीव उपशम समकितथी पडीने नियमा मिथ्यात्वे जाय छे. आगमिक पक्षमा तो पूर्वोक्त रीते उपशम समकित पाम्या पछी आत्मा नियमेन मेंणमय कोद्रवाने साफ करवथी कोद्रवा शुद्ध, अर्धशुद्ध भने अशुद्ध एम त्रण प्रकारे विभक्त थाय तथाप्रकारे अध्यवसायबलथी मिथ्यात्वना प्रदेशोने साफ करतो शुद्ध, अर्धशुद्ध,
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy