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________________ . (१५६) अशुद्ध ए रीते त्रण प्रकारे प्रदेशोनो भाग पाडे छे. भानुं ज नाम त्रिपुंज शास्त्रो जणावे छे, एटले उपशमथी पड्या पछी मिथ्यात्व, मिश्र अथवा क्षायोपशमिक भावने आत्मा पामे छे. "निर्मलबोधवान्" बस आ प्रमाणे जेोए ग्रंथीभेद कर्यो होय एटले तेयोने ज अर्थात् ग्रंथीभेद कर्या पछी अवश्येन आत्मा अनिवृत्ति नामाकरणथी-अध्यवसाय विशेषथी समकित पामे छे. अतः श्रा आत्माने ज 'प्रणिधान' आदि अध्यवसाय स्थाननो बोध तथा तेनो अनुभव निश्चयथी थाय छे. अहीं 'भिन्नग्रंथे।' ए व्यच्छेदक विशेषण होवाथी आ भिन्नग्रंथी सिवायना आत्माने श्रा प्रणिधानादि अध्यवसायो न होय, एवं आत्मा एवो जाणवो के-'निर्मलबोधवत' निर्मल-सुंदर हेयोपादेय संबंधी बोधवान् जे होय. परमार्थ ए के-जेने जिनप्रवचन प्रतिपाद्य तत्त्वनुं ज्ञान प्राप्त थयुं होय तेने ज पा अध्यवसायो आवे, एटले खाली भिन्नग्रंथीने ज उपरोक्त आशयोनी प्राप्ति न थाय किन्तु निर्मलबोधवान् पण होवो जोइए. आ परथी जेनो शास्त्रीयज्ञानवान् न होय अने भिन्नग्रंथी होय तेत्रो यदि गीतार्थ आज्ञानुसारी अथवा गुर्वाज्ञाप्रमाणे प्रवृत्ति-निवृत्तिक्रियाकारक होय तो तेरो पण परमार्थतया निर्मलबोधवान ज होवाथी तेयोने मा अध्यवसायो पेदा थाय तेमां कांइ पण विरोध न जाणवो कारण के मारूष मातुष जेवा मुनिप्रवरो पण मोक्षे गया
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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