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________________ (१५७ ) तथाप्रकारे यथाप्रवृत्तिकरण आत्मा पोताना स्वाभाविक अपूर्व वीर्यबलथी आयुष्य सिवायना सात कर्मोनी बृहत् स्थितिनो नाश करी मात्र पल्योपमना असंख्यात भागन्यून एक कोटाकोटी सागरोपम जेटली स्थितिवाला कर्मोने करी मुके. अहीं थी आगळ वधवा जेटलुं बल जेत्रोमां नथी होतुं, तेश्रो तो अहींथी ज पाछा पडी जाय छे अने घणाओ अहीं ज उभा रहे छे, कारण के मा स्थलमां दुर्भेद्य वंशनी गांठ जेवी कठोर रागद्वेष परिणतियो उपस्थित थाय छे जेथी आत्मा पाछो पडी जाय छे. आने ज महर्षियो ग्रंथी कहे छे. अभवि आत्माओ अहीं सुधी अनंतीवार श्रावी अावीने पाछा वळी गया छे, एवं अहीं भवि अभवि असंख्यकाल यावत् स्थिर पण थाय छे यावत् अभवि तो चारित्र धारण करी अपूर्ण एवा दशपूर्व पर्यंतनो अभ्यास पण करे छे, छतां तेओना ज्ञानने मिथ्याज्ञान कपु. दशपूर्व अने चौदपूर्वनो अभ्यास तो समकितीने ज होय. " चउदस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसए भयणा तु" हवे कोइ कोइ भवि आत्मानो तो अपूर्वकरण-अद्भुत पराक्रमवडे उपरोक्त रागद्वेषनी ग्रंथीने भेदी नांखी मिथ्यात्वस्थितिना उदयकाल संबंधी अंतर्मुहूर्त काल जेटला भोग्यकर्मने छोडी, त्यारपछीना भविष्यमां उदय आवनार एवा अंतर्मुहूर्त्तकाळ जेटला ज मिथ्यात्वकर्मना प्रदेशोने नाश करी शके एवं 'अन्तरकरण' आत्मा अनिवृत्ति नामे कोइ सर्वोत्तम बलवडे रचे छे. अहीं
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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