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________________ ( १५५) मूलार्थ:- प्रणिधान आदि पांच धर्मना अध्यवसाय स्थानो मागल दर्शावे छे. आ अध्यवसायनो जेने बोध न होय तेश्रोने चा पुष्टि- शुद्धिनो अनुबंध पण न होय, तेमज जेचोए ग्रंथी भेद कर्षो छे भने उत्तम एवो शास्त्रनो बोध प्राप्त कर्यो छे तेओने तो त्रा पुष्टि- शुद्धिनो अनुबंध उत्कृष्टतया होय ज. उद्भवता " अनुबंध साधनो स्पष्टीकरण पुष्टि तथा शुद्धि ' ना अनुबंधमा तिनुं मुख्य साधन ' प्रणिधान ' विगेरे पांच आशयनुं ज्ञान अने अनुभव अहीं ग्रंथकर्ता दर्शावे छे. आ ' प्रणिधान' आदि पांच अध्यवसायनुं स्वरूप अने तेना नामो शास्त्रकर्ता आागलना लोकोथी जणावशे यद्यपि अंतःकरणथी विचारो अनेक प्रकारना कथा छे तो पण धर्मक्रियाना पोषक ने वर्धक एवा सर्व अध्यवसायो पांच अध्यवसायनी अंतर्गत होवाथी विशिष्टपणे पांच ज अध्यवसायो जाणवा. अहीं आचार्यश्री जणावे छे के—श्रा प्रणिधान चादि अध्यवसायनुं प्रथम बराबर ज्ञान थाय अने त्यारपछी तेनो जेने योग्य रीते अनुभव थयो होय तेने ज आ दर्शित ' अनुबंध ' नो लाभ थाय. एटले के-जेने या अनुभव नथी बल्यो तेने ते 'अनुबंध' नो लाभ न ज था. अतः टीकाकार पण मूलस्थ ' संवित् ' पदनी व्याख्यामां " संवित् संवित्तिः संवेदनमनुभवः " संवित्
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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