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________________ (१५१) बंध-परंपराथी अनुक्रमे आत्मानी उत्कृष्ट मुक्ति थाय के ए तत्त्व जाणवू. "पुष्टि-शुद्धि लक्षण" स्पष्टीकरण-" उपचीयमान पुण्यता पुष्टिः" अनुक्रमे पुण्य-सुखरूप फलप्रदाता कमनी वृद्धि तेनुं नाम अत्रे पुष्टि अभिप्सित छे, अने पूर्वबद्ध ज्ञानावरणीयादि सम्यग्ज्ञानादि गुणघातक कर्मनो अनुक्रमे क्षय थवाथी आत्मानी स्वच्छता ते अहीं शुद्धि मानी छे. तत्त्व ए के-पूर्व श्लोकमां दर्शाव्या प्रमाणे प्रात्मा सिद्धान्तज्ञानना संयोगथी पवित्र एवी दान, तप, शील, पूजा, इंद्रियदमन, कषायविजय, सामायक आदि क्रियाश्रोनुं पाचरण तथा हिंसा, जूठ, चोरी, मैथुन आदि पापक्रियानो त्याग करे. एटले आ क्रियाद्वाराए आत्मा अने तदाधारभूत चित्त बन्ने पवित्रतर थवाथी शुभ-पुण्यकर्मनो ज बंध करे छे, भविष्यमां जेथी सुख मळे तेवा ज कर्मो बांधे छे अने सम्यग्ज्ञानादि गुणोनो नाश करनार एवा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय, मोहनीय ए चारे घातीकर्मनो अनुक्रमे नाश करे छे. आथी आत्मा तथा तत्संबंधी चित्त उभय स्वउछ-निर्मल थाय छे. अत्रे दर्शित चारे कर्म आत्माना मुख्य एवा ज्ञान, दर्शन, एकान्त शुद्ध स्वरूप तथा वीर्य गुणोनो नाशकर्ता होवाथी ते घातीकर्म कह्यां छे. अत्र क्रियाद्वारा पापकर्मनो नाश सर्वथा अथवा देशथी थाय ते उभयथा निर्मळता समजवी. या स्थळमां मूळकर्ताए जे 'चित्त 'नी निर्मळता
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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