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आत्मा पोताना असल स्वरूपने समजी मलस्वरूपी अलग यज्ञा प्रयत्न करे छे. अतएव ' तदयं क्रियात एव हि ' मा क्रियाद्वाराए ज मलो नाश थवाश्री ' पुष्टिः शुद्धिभ्र चित्तस्य' चित्तनी पुष्टि तथा शुद्धि बने के. अत्र पुष्टि भने शुद्धिनुं स्वरूप उत्तर लोकमां दर्शावशे ते अहीं जाणं अर्थात् पूर्व श्लोकमां 'पुष्ट्यादिमत्' ए प्रकारे चिचनुं विशेषण कहां हतुं तेमां पुष्टि शुद्धि चित्तनी क्या प्रकारे बाय ? ए शंकानो प्रत्युत्तर या लोकना स्पष्टीकरणथी समजाइ जाय छे.
"मलोनो विगम थवाथी चित्तनी पुष्टि तथा शुद्धि प्रगटे के ए भाव गत चार्यामां दर्शाव्यो. अहीं पुष्टि तथा शुद्धिनुं स्वरूप शुं ? शंसयने दूर करवा माटे अत्र आचार्यथी पुष्टि भने शुद्धिनुं लक्षण दर्शावे छे. "--
पुष्टिः पुण्योपचयः
शुद्धिः पापचयेण निर्मलता ॥
अनुबंधिनि द्वयेऽस्मिन्
क्रमेण मुक्तिः परा ज्ञेया ॥ ३-४ ॥
मूलार्थ – पुण्य - शुभकर्मनो उपचय - वृद्धि ते अत्रे कुष्टि, तथा पाप - अशुभकर्मनो क्षय-नाश थवाथी चिचनी जे निर्मलता - स्वच्छता ते महीं शुद्धि जाणवी. या उभयना अनु