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________________ (१५२) जणावी 'चित्त' शब्दनुं ग्रहण कर्यु के प्राथी अत्रे चित्त शब्दथी भावमनरूप प्रात्मा ज जाणवो. 'चित्त' द्रव्य अने भाव एम बे प्रकारनुं कर्तुं छे. आत्मा औदारिक आदि स्थूल देहना प्रयत्नथी विविध विकल्पो-विचारो करवा माटे मनोवर्गणाना द्रव्योने ग्रहण करे छे जे द्रव्योवडे आत्मा अनेकधा विचारो करे छे. आ द्रव्यनुं नाम जैनशास्त्रकारो द्रव्यमन कहे अने विचाररूप अथवा विचारकर्ता आत्मा ते अहीं भावमन मान्युं छे, तेमां द्रव्यमन पुद्गलस्वरूपी होवाथी तेनी पुष्टिशुद्धि दर्शाववामां कंइ तत्त्व नथी. मात्र विचाररूप जे भावमन तेनी ज पुष्टि अने शुद्धि कर्मनाशद्वारा थवाथी अहीं आ विचाररूप भावमननु ज ग्रहण कर्यु छे, परंतु द्रव्यमन लीधुं नथी. हवे श्रा पुष्टि तथा शुद्धिनुं फल उत्तरार्धथी आचार्यश्री जणावे छे. " पुष्टि शुद्धिनुं फल" उपरोक्त पुष्टि तथा शुद्धिनो अनुबंध-परंपरा चालवाथी अर्थात् प्रथम दर्शावेल क्रियाअोमां निरंतर प्रवृत्ति करवाथी, कदापि क्रियामां त्रुटीयो न आववाथी, क्रियाथी भ्रष्ट मनने पण अनुसंधान करी पुनः क्रियामां दाखल करी अस्खलित क्रियाओ करवाथी आत्मा शुभकर्मनो बंध अने अशुभ-पापकर्मनो क्षय अधिकाधिक कर्ये जाय छे. आथी परिणामे आ जन्ममां के परजन्ममां अधिक शक्ति विस्तारी तेज क्रियाना अभ्यासबलथी शुभाशुभ उभय कर्मनो सर्वथा नाश करी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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