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________________ (१२६) स्थानमा विराजमान छ एम दृष्टाने (जोनारने) प्रत्यक्ष मालुम थाय छे. एटले ग्राह्यवर्ण, ग्रहीतमणि अने वर्णने स्वीकारी तन्मय थवानो मणिनो स्वभाव ते ग्रहण-आत्रणे भाव वर्ण अने मणिमा साक्षात् अनुभवाता होवाथी स्वच्छ भने निर्दोष सुंदर मणि लाल, पीलु, पास्मानी, कृष्ण वर्णवालं आपणे सौ साधारण दृष्टिथी जोइ शकीए छीए. परमार्थ के मणि कपडाना संबंधमात्रथी तथाप्रकारना वर्णमय थइ जाय के एज रीते अहीं प्रात्मा अने परमेश्वरमां आ दृष्टांतनी बराबर साम्यता-घटना समजवी. प्रात्मा ज्यारे आगमोक्त परमेश्वरनुं स्वरूप समजीविचारी तदीय ध्यानमां तन्मय बनी परमात्मा साथे एकाकार बने छेत्यारे प्रात्मा पण सर्वज्ञरूप-परमात्मरूपपणानो परमार्थथी अनुभव करे छे. एटले ध्येय परमात्मा, ध्याता-विचारकर्ता आत्मा अने ध्यान ते परमात्माना स्वरूपनो विचार-आ त्रणेनो समागम ते ' समापत्ति.' परमात्मा सर्वने ध्येयस्वरूप प्राप्तव्य होवाथी परमात्मा ध्येय अने तेमना स्वरूपनो-गुणोनो अभ्यास, परिशीलन, विचार ते ध्यान तथा विवेकी प्रात्मा ा स्वरूपनो विचार-अभ्यासकर्ता होवाथी ते ध्याता. ा त्रणेनो ज्यारे समागम-ऐक्यता थाय त्यारे विवेकी आत्मा सर्वज्ञना ध्यानरूप बाह्य आलंबनद्वाराए सर्वज्ञरूपनो अनुभव करे छे एटले ते आत्मा पण सर्वज्ञरूप कहेवाय; कारण के-पा समये ते प्रात्मा 'मयि तद्रपं स एवाहं ' 'मारामां भगवाननुं रूप के, अने हुं भगवद्रूप छु'ए ज भाव विज्ञानद्वाराए अनुभवे छे. माटे
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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