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________________ (१२८ ) संकोचे प्रकाश्युं छे, जेथी आगमना अभ्यासी अने भागमानुसार प्रवृत्तिकारको पोतानुं कल्याण निराबाधपणे साधी शके, अर्थात् प्रागमोक्त मार्गमां चाली जे साधनोद्वारा परमेश्वरनी प्राप्ति जणावी छे ते साधनो उपलब्ध करी, परमेश्वर स्वरूप हृदयमां बराबर स्थापन करी सर्व वृत्तियो-विकल्पो बंध करी केवल परमेश्वरना ज ध्यान-विचारमां तन्मय बने छे. एटले श्रा समये ते विशिष्टात्मा अने परमेश्वरनो जाणे अभेदभाव न थयो होय तेवो आ आगमोक्तकारी आत्माने अनुभव थाय छे. भानुं नाम आचार्यश्री 'समापत्ति' ध्यान कहे छे. " ध्याता, ध्येय अने ध्यान " आविषयने समजाववा टीकाकार योगशास्त्रनो आधार प्रापे छे. 'दीणवृत्तेरभिजात्यस्येव मणेाह्यग्रहीतृग्रहणेषु तत् स्यतदनुगता समापत्ति:"ध्याता, ध्येय अने ध्यानमा त्रिकोटीनी ज्यारे ऐक्यता थाय त्यारे ते 'समापत्ति'-समभावनी प्राप्ति कही छे. जेम सुंदर अने स्वच्छ जात्य स्फाटिकमणि पासे जेवा प्रकारचं रंगीन कपडं धरवामां आवे तथाप्रकारनी छाया ते मणिमां बराबर प्रतिविम्बित थाय छे, एटले कपडामां स्थित वर्णनो स्वीकार करी मणि पण तेवा ज रंगनो देखाय छे. अहीं मणि, रंग अने कपडं ए त्रणेनो समागम बनी एक-बीजा तन्मय तदाकार प्रतिभासमान थाय छे, कारण के कपडामां स्थित वर्णने ग्रहण-पकडवानी ताकाद मणिमां छ भने वर्णमां पकडावानी शक्ति छे. एवं आ बने वस्तु एक
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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