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(१३०) अहीं ग्रंथकर्ताए उल्लेख कर्यो के-श्रा पूर्वोक्त ' समापत्ति' रूप मावावस्था आत्माने परमात्मारूप बाह्य झालंबनद्वारा ज उपलब्ध थाय छे; सिवाय ते अवस्था अप्राप्य ज जाणवी. "योग तथा योगि अने योगिमाता" ___ आटलो निर्देश करी फरी ग्रंथकर्ता आ 'समापत्ति' नी प्राप्तव्यता, आराध्यतानी अलौकिकता सिद्ध करवा उत्तरार्धथी प्रकांड प्ररूपणा करे छे. 'सैवेह योगिमाता' दर्शित 'समापत्ति' ज अहीं-जैनदर्शनमा अथवा सर्वदर्शनमां योगियोनी माता कही छे. 'मोक्षण योजनात् योगः' जेथी आत्मानो मोक्ष साथे बराबर संबंध थाय ते योग. आ योगने जेगो पाम्या तेश्रो योगि कहेवाय. योग तथा योगि शब्दनो अत्र आ अर्थ होवाथी सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम, कषायविजय, इंद्रियनिग्रह, शान्ति, शौच, ब्रह्मचर्य, निर्ममत्व-या सर्व योगमार्गों के अने ते मार्गमां चालनार सर्व योगि जाणवा. खाली बाह्यथी जटा वधारी, कौपीन. वल्कल के व्याघ्र के मृगचर्म धारी, भस्म चोळी वेश करवो ते कांइ योगिपणुं न कहेवाय. जेमां मोक्षनो संबंध आत्मा साथे न थाय तेनुं नाम योग नथी कह्यो. श्रा योगियोने उपरोक्त योग धारवार्नु मुख्य फल परमात्मप्राप्ति सिवाय अन्य अभीष्ट नथी का, अर्थात् आ सर्व योगियो पण योगमार्गना पंथमां विचरी परमात्माना ध्यानरूप 'समापत्ति' अवस्थानो लाभ करी ते द्वाराए अनुक्रमे परमात्मा अने पोते बने तुल्यस्थान स्थित बने छे. एटले