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________________ ( १२७ ) अर्पण करे छे, जेथी आत्माने या संसारना भयानक स्वप्नाने जोवानो समय फरीने भावतो नथी. " प्रभुथी समरस लाभ " आज वातनो उद्देश ग्रंथकर्ता जगावे छे के " तेनैव भवति समरसापत्तिः " भगवद् वचनाधारे प्रवृत्ति करवानुं, भगवाननुं बहुमान के पूजा करवानुं खरुं फल ए छे के श्रात्मा भगवंत जेवो उपशमभाव प्राप्त करे- एटले कषायोनी क्षीणता थई जाय हेतु ए के कषायोनी क्षीणता विना साक्षात् भगवद् प्राप्ति थती नथी अने आत्मानो वास्तव धर्म उपशमभावस्वस्वभावमां रमणता करवानो ज छे. आ स्वरूप खरी रीते भगवानना वचनोथी आत्माने उपलब्ध थाय छे, माटे अहीं जणान्युं के भगवान पासेथी ज या समरस-उपशमरसनी प्राप्ति थाय छे; कारण के प्रभुकथित वचनरूपी अमृत एवं छे के आत्मा तथाप्रकारे वर्ते तो जरुर अमृतभावमय ज थइ जाय. " " समापत्तिनुं स्वरूप ' अथवा टीकाकार " तेनैव भवति समरसापत्तिः " ए चरणनो अन्यार्थ निकाले छे. " ते भगवानथी ज आत्मा समरसनी प्राप्ति करे छे." अत्र 'रस' शब्द भाव अथनो वाचक छे एटले समभावनो लाभ पाने छे. जिन भगवतोए स्ववचनथी जेम जगतना कल्याण माटे प्रवृत्ति - निवृतिना द्वारो खोली दर्शाया छे तेम परमेश्वरनुं पण यथार्थ स्वरूप विना
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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