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________________ ( १२२) मूलार्थ-सर्वज्ञवचन-सिद्धान्तने हृदयांकित करवाथी एटले चित्तमा स्थापन कर्या पछी परमार्थथी सिद्धान्तद्वारा मुनींद्रसर्वज्ञ भगवाननी ज हृदयमां स्थापना कराय छे, अतः भगवान हृदयमा बीराजवाथी आत्मा पोतानी सर्व अभीष्ट सिद्धियोने नियमेन विनाविलंबे प्राप्त करे छे. "प्रभुप्राप्तिनो मार्ग" स्पष्टीकरण-अभीष्ट अर्थोनी सिद्धि परमात्मानी प्रसन्नता सिवाय न ज थाय ए तो सर्वसाधारण वात छे. परमात्मानी प्रसन्नता खाली तेनी विविध पूजाओ करवाथी अने मंदिरो बंधाववाथी ज न मले, किन्तु परमात्माने प्रसन्न करी तेने पोताना हृदयमंदिरमा स्थापन करवानो मार्ग अलौकिक अने घणो सरल छ, ते ज वात अत्र प्राचार्यश्री स्पष्ट करे छे. जनता परमात्माने खुशी करवानो अने तेने मेळववानो मार्ग वारंवार पूछे छे, तेना माटे प्राचार्यश्री कहे छे-" अस्मिन् हृदयस्थे" आ विधि, प्रतिषेध, उत्सर्ग, अपवाद आदि मार्गदर्शक लौकिक-लोकोत्तर कल्याणमार्गप्ररूपक स्याद्वादशैलीमय एवं पूर्वोक्त आगमवचन-सिद्धान्तकथित अाज्ञानो हृदयमां धारवाथी, अर्थात् आत्मा सामान्य के विशेष जे काइ प्रवृत्ति-निवृत्ति आचरे ते सर्व सिद्धान्तनी आज्ञा अनुकूलपणे ज यदि आचरे तो " तत्त्वतो० " परमार्थथी आत्मा परमेश्वरन ज नितान्त बहुमान करे के कारण के-परमेश्वर उपर ज्यारे अनन्य भक्ति-बहुमान होय त्यारेज भव्य आत्मा तदुक्त प्रत्येक
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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