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एवा आगमोक्त सर्व अनुष्ठानो पण मुख्य ज जयाव्या, एटले नितान्त देय ने अनुष्ठेय जाणवा अन्यथा श्रागमदर्शित अनुष्ठानोनुं बहुमान के अश्रद्धा करवाथी फरी भागमवचननुं ज अबहुमान कर्यु जाणवुं, तथा तेम करवायी अधर्म जगणाय. आटला कथनथी प्रथमनी सर्व शंकाभोनुं पण निरसन थइ गयुं, उपाध्यायजी कहे छे के धर्म अहीं व्यापाररूप ज्ञापकता संबंधी जाणवो, एटले आागम ए धर्मनुं ज्ञापक छे; ज्यारे धर्म अत्रे ज्ञेय जाणवो. छेवटे टीकाकार जगावे छे के— सर्वज्ञोक्तेन शास्त्रेण, विदित्वा योऽत्र तत्त्वतः । न्यायतः क्रियते धर्म्मः, स धर्म्मः स च सिद्धये ॥ १ ॥ “ सर्वज्ञभाषित शास्त्रोमां कहेल तत्त्वनुं भान -बोध करी न्यायरूपे जे कांइ करवामां आवे तेनुं ज नाम अत्रे जैनसिद्धान्तमां धर्म को छे अने या ज धर्मसिद्धि आपे छे; बाकी कोई पण धर्म मोक्षदायी मान्यो नथी. " या बात पर बहु बहु विचार तथाप्रकारे बुधजनने उपदेश आपवो.
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" सर्वज्ञवचननी मुख्यता अहीं शा शाटे जगावी १ तेनो हेतु ग्रंथकर्त्ता स्पष्ट करे छे. "
अस्मिन् हृदयस्थे सति, हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनींद्र इति ॥ हृदयस्थिते च तस्मिन्नि
यमात्सर्वार्थसंसिद्धिः॥ २–१४॥