SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१२०) तो धर्मनो बाह्य व्यापारमात्र छे. निदान के-मन तथाप्रकारे आगमथी संस्कारी थया पछी सहजतया शुभाशुभमां प्रवृत्तिनिवृत्ति करे छे, अतएव आगमोक्ततत्त्वनी आराधना करवी तेमां खरो धर्म जणाव्यो. आQ मन बराबर अचलपणे प्रवृत्ति-निवृत्ति करे छे, एटले सुंदर चारित्र, तप, स्वाध्याय, ध्यान, क्रियाकुशलता आदि धर्मना प्रधान भंगो पण आत्माने सहजतया उपलब्ध थाय छे. अर्थात् प्रा मन कदापि प्रा व्यापारोन उपेक्षा करतुं नथी बल्के परमश्रद्धापूर्वक सुविशुद्धपणे आचर छे-कदापि भंग थवा देतुं नथी माटे ज अहीं ग्रंथकर्ता कहे छे के-" धर्मश्चैतत्संस्थो" धर्म आ भगवंतकथित प्रवचननी सेवामां अबाधपणे रह्यो छे अने जैनशासनमां आ सर्वज्ञवचन ज परमतत्व-उत्कृष्ट धर्म छे. टुंकमां सर्व अनुष्ठानोनुं मुख्य जीवन-प्रधान आधार सवेज्ञवचन ज जाणवू. " शंकानो उद्धार" देहना प्रत्येक अवयवो अने इंद्रियोनो व्यापार-स्थंभ मुख्य प्राणो ज छे. प्राणनो नाश थया पछी सर्व व्यापारोनो लोप आपोआप ज थइ जाय छ, एवं सर्व अनुष्ठानोनी आराध्यता सर्वज्ञवचननी आराध्यताथी बने छ, अने सर्वज्ञवचननी विराधना करवाथी सर्व अनुष्ठनो निर्जीव तुल्य समजवा, माटे बुध योग्य उपदेशविधिमां सर्वज्ञवचननी प्राधान्यता जणावी. परंतु आ कथनथी अन्य अनुष्ठानो गौण अथवा नकामा नथी समजवाना: बल्के सर्वज्ञवचननी प्रधानता दर्शाववाथी तेनाथी अभिन्न
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy