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________________ (११७) तेणे सर्व आगमोक्त वातो मान्य करी, अने जेणे एक अक्षर लोप्यो तेणे प्रभुनो पण अनादर कर्यो. अतः प्रभु आज्ञार्नु पालन करवू ए ज धर्मर्नु परमतत्त्व छे, ए रीते 'बुद्धजन' पासे उपदेशके कथन करवू. निदान के-भागमाज्ञानी प्राधान्यताश्रेष्ठता-सर्वकर्तव्यता दर्शाववी. " विचित्र दलीलो" " अरे ! आ प्रकारनो उपदेश आपवाथी तो बाह्य अने आभ्यंतर आचारोनी अप्रधानता बल्के असारता ज प्रतिभासमान थाय छे, अथवा पा उपदेशथी या लोकोनी आचार परत्वेनी रुचिनो नाश ज केम न थाय ? जो आम ज होय तो पछी बालजनने बाह्य आचार संबंधी उपदेश, मध्यमजनने आभ्यंतर आचार संबंधी उपदेश आपवो नकामो ज मानवो जोइये, माटे सर्व अनुष्ठानोने गौण करी वचनाराधनमां ज धर्म केम न कह्यो ? ा बधी शंकासोने दूर करवा समग्र अनुष्ठानोनुं मूल प्रभु आज्ञा ज छे ए वात दर्शाववा आचार्यश्री परमार्थे उपदेश देखाडे छे. " यस्मात्प्रवर्तकं भुवि, निवर्तकं चांतरात्मनो वचनं ॥ धर्मश्चैतत्संस्थो, मौनींद्रं चैतदिह परमं ॥ २-१३ ॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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