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________________ ( ११६) अथवा वचननो दुरुपयोग के अनर्थ करवो, पोताना आग्रहने, धारणाने पोषवा माटे सर्वज्ञवचननो उपयोग करवो ए सर्व प्रभु आज्ञानु खुनरूप चेष्टा होवाथी अधर्मज जाणवो. निदान के तेथी प्रात्मा संसारना दुःखनुं पात्र ज बने छे.. " वचनाराधकतामां आराधकता" ___भगवान् हरिभद्रसूरिजी महाराज जणावे छे के-उपदेशके बुध श्रोताने खुन्नु जणावयु के-प्रभुना वचननुं पालन करवू तेज धर्म अने तेनो अनादर-अपालन करवु ते अधर्म, एज अहीं जैन प्रवचनमां धर्मर्नु नितान्त सत्य-गृढतत्त्व का छे, अने एज संपूर्ण द्वादशांगीतुं परमतत्त्व-सर्वसारभूत प्रधान तत्त्व कह्यु छे. निष्कर्ष ए के-प्रवचनज्ञान- फल एज के शक्ति छतां तदनुकूल क्रिया-वर्तन करवू अने वधु माटे पूर्ण मादर साथे अपेक्षा मानबुद्धि धारवी, श्रोता समीपे सत्य तत्त्वजें कथन करवु अने पोतानी अशक्ति जाहेर करवी; कारण के श्रद्धाथी पडेला आत्मानो उद्धार कदापि थतो नथी पण क्रियापतितनो तो उद्धार थइ जाय छे. एटले प्रभु आज्ञानुं पालन करवू एज सत्य धर्म अहीं दर्शाव्यो. प्रभु हेमचंद्रसूरिजी पण एज दर्शावे छे के-" आज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च । इतीयमाहिती मुष्टि-मन्यदस्याः प्रपंचनं" ॥१॥ा माटे ज भगवंतो पागम प्रमाणे वर्तनारने पाराधक कहे छे ने एक अक्षरने पण नहीं माननारने अनंतसंसारी जणावे छे, तेनुं कारण ए ज के-जेणे आगमाज्ञा मानी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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