SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५ ) सुक्कोडीसु । न हणइ १ किएइ २ न पयइ ३, कय कारवण अणुमईहिं नवहा " || १ || " पिंडेसणा संबंधी सर्व विधि संक्षेपथी न हणवुं ३, न खरीद ३, अने न रांध ३ कर, कराव, अनुमोदनुं विगेरे ए नवकोटिमां समावेश थाय छे. " कषच्छेदताप त्रिकोटि " 44 ग्रा एवं टीकाकार पुनः " त्रिकोटी परिशुद्धं " नी टीका 'कषच्छेदताप कोटित्रयपरिशुद्धं " जणावी स्पष्ट कहे छेके - संपूर्ण जैनागम आठ प्रवचनमातामां अंतर्हित होवाथी एटले जैनागम आठ प्रवचनमाताना आधारे ज जीवे छे, माटे विद्वानोए या जैनागमनी पण त्रण कोटिथी कप, च्छेद अने तापद्वारा परीक्षा करवी ए नितान्त न्याय्य गणाय. बाह्य-आभ्यंतर आचारने दर्शावनार एवा मूल स्थंभभूत प्रवचन - सिद्धातनी कसोटी कर्या विना आचारोनी कसोटी क्यांची थाय १ अतएव अत्र टीकाकारे तेनी परीक्षा करवा " त्रिकोटिपरिशुद्ध" ए पदनो उपरोक्त अर्थ जगाव्यो छे एटलुं ज नहीं किन्तु प्रगाढपणे खुल्लो करे छे. निदान के आगम एटले सर्वज्ञनुं वचन 66 तेनी यथास्थित परीक्षा थवाथी तदुक्त आठ प्रवचनमातानी स्वतः परीक्षा थइ गइ, कारण के - सर्वज्ञवचनरूप प्रवचन श्राज्ञाथी ज साधुओ वर्तन - क्रियामात्र करे छे. 46 कषशुद्धि " कप, च्छेद अने तापनुं स्वरूप एतत् ग्रंथकर्त्ता " धर्म
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy