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बिंदु " मां श्रा रीते जगावे छे, जे परीक्षकोने बहु उपयोगी तथा ध्यान राखवा योग्य छे, “विधिप्रतिषेधौ कष इति” विधि तथा प्रतिषेध ते कष. मोक्ष या स्वर्गप्राप्तिमां हेतुभूत जे कार्यों तेने दर्शावनार वाक्यो ते विधिवाक्यो, जेवां के" असं च छंदं च विगिं च धिरे " धीर पुरुषोए श्राशा तथा मोहनो त्याग करवो जोइए, "उदाहु वीरे अप्पमादो महामोहे " वीरप्रभु कहे छे के - महामोहथी अप्रमादीसावधान रहो, " सव्वामगंधं परिण्णाय पिरामगंधो परिव्वए ( श्राचारांग ) सर्व भावोने छोडी निर्मोही थइने विचरो एवं दान देवुं तप करवो, पांच समिति तथा ऋण गुप्ति शुद्ध चारित्र पालवुं - आ सर्व विधिवाक्यो जाणवा. फरी जे करवाथी पापबंध थाय, आत्मानुं अहित थाय तेवा कार्योंना निषेधदर्शक जे वाक्यो ते प्रतिषेध वाक्यो जाणवा, जेवां के - " रागद्दोसकसाएहिं इंदिएहिं य पंचहिं । दुहा वा मोहणिज्जेण अट्टा संसारिणो जिया " राग-द्वेष अने कषायथी, पांच इन्द्रियोथी तथा वे प्रकारना मोहथी संसारी जंतुओ दुःखी थाय छे, अतएव तेनो त्याग करवो जोइये. पुनः " आत्मवत्सर्वभूतेषु, सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिंतयन्नात्मनोऽनिष्टां, हिंसामन्यत्र माचरे" ॥१॥ जेम स्वात्माने सुख तथा दुःख प्रिय अने अप्रिय लागे छे तेम सर्वात्माओ संबंधे समजी पोताना आत्माने अनिष्ट एवी हिंसा अन्य आत्मानी विद्वाने न करवी, तेमज झुठ न