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________________ (६४) द्वेष अने मोहे करीने शुद्ध होय, अर्थात् मुनियोने संसारना विविध सुंदर पदार्थोनो मोह न होय, स्वजन-परजनमां मोह के रागबंध न होय, निंदक के पूजकमां प्रेम या द्वेषभाव न होय. अरे ! साधुओने स्वशरीर पर पण मोह नथी होतो तो अन्य पदार्थनो मोह क्यांथी होय ? निदान के-साधुबो एवं चारित्र-सुंदर वर्तन पाचरे के जेमां पाराग, द्वेष व मोहने अवकाश न मले अथवा अनुक्रमे निर्मूल थइने चाल्या जाय. टीकाकार आ पदनो बीजो अर्थ दर्शावे छे-"तिस्रः कोटयः हननपचनक्रयणरूपाः कृतकारितानुमतिभेदेन श्रूयंते ताभिः परिशुद्धं" हनन, पचन, क्रयण ए त्रण कोटीने करवू, करावईं अने अनुमोदनवडे गुणवाथी नव भेदो थाय. ा नव भेदे शुद्ध साधुओर्नु वर्तन होय, अर्थात् मुनियो कोइ जीवने हणे, हणावे अने हणताने सारो समजे नहीं, अग्नि आदिनो प्रारंभ करे, करावे ने कर. ताने ठीक माने नहीं, कोइ पण चीज बजारथी मूल्यथी ले, लेवरावे ने लेताने सारो समजे नहीं. परमार्थ के-४२ दोष रहित जे आहारविधि मुनियो माटे आगल दर्शायी गया ते आत्रण कोटीमां अंतर्गत थाय छे. जो आ त्रिकोटीशुद्ध वर्तन यथास्थित होय तोज आ आहारविधि पण बराबर सुरक्षित थाय; अन्यथा आहारविधि पण सदोषमय जाणवी. एटले निर्दोष आहार इच्छक मुनिये अवलमा अवश्य आत्रण कोटीनी शुद्धि करवी ए न्याय्य गणाय. एज वात शास्त्रोमां कही छे-"पिंडेसणाय सव्वा, संखित्तो असरह नव
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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